सूर्योदय भास्कर संवाददाता विशाल गोस्वामी/आगरा। गुरु-गोविंद की संस्कृति के देश में सर्वपल्ली राधाकृष्णन् ने लिखा है कि – “समाज में अध्यापक का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है। वह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को बौद्धिक परंपरायें तथा तकनीकी कौशल पहुँचाने का केन्द्र है एवं सभ्यता के प्रकाश को प्रज्ज्वलित रखने में सहायता देता है। एक सच्चा अध्यापक जीवन-पर्यन्त विद्यार्थी बना रहता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में- “एक अध्यापक कभी भी वास्तविक अर्थों में नहीं पढ़ा सकता, जब तक वह स्वयं अभी सीख न रहा हो। एक दीपक दूसरे दीपक को कभी भी प्रज्ज्वलित नहीं कर सकता जब तक कि उसकी अपनी ज्योति जलती न रहे। शिक्षा संस्कृति के हस्तांतरण, संरक्षण तथा संवर्धन का प्रमुख साधन है। अतः किसी भी देश की शिक्षा वहाँ की संस्कृति के संदर्भ में ही समझी जा सकती है।
शिक्षा किसी भी राष्ट्र की नींव होती है और शिक्षक राष्ट्र के निर्माता। किसी भी राष्ट्र का भविष्य वहां की शिक्षा-व्यवस्था, शिक्षकों के चरित्र और आचरण पर ही निर्भर करता है। भारतवर्ष की महान संस्कृति की पृष्ठभूमि में भी यहां के शिक्षकों की त्याग युक्त तपस्या रही है। भारत यदि विश्वगुरु के पद पर लंबे समय तक प्रतिष्ठित रहा और आज भी यदि पूरा विश्व उसकी ओर आशा भरी दृष्टि से निहारता है, तो उसके पीछे यहां के आदर्श शिक्षकों का ही शुचितापूर्ण आचरण एवं ज्ञान के प्रति समर्पण है। यहां का ध्येय वाक्य रहा है-
एतद्देश प्रसूतस्य शकासाद् अग्रजन्मन:, स्वं-स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथ्वियां
सर्व मानव यह वह देश है, जहां के शिक्षकों ने धरती को बिस्तर और आसमान को चादर बनाकर स्वयं झोंपड़ियों में रहकर भी महलों के लिए सम्राट तैयार किए। त्याग, तपस्या, साधना, संकल्प, सिद्धांत और आचरण की इस पावन भूमि पर गुरु-शिष्य संबंधों की महान परंपरा रही है।प्राचीन काल से लेकर लगभग आज तक अनेकों ऐसे शिक्षक-प्रशिक्षक रहे, जिन्होंने स्वयं को नेपथ्य में रखकर अपने विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य का निर्माण किया। जिन्होंने विद्यार्थियों की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता, उनके सुख-दुःख में अपना सुख-दुःख और उनकी सफलता में अपने जीवन की सफलता और सार्थकता खोजी और पाई। आज भी निजी विद्यालयों-महाविद्यालयों के ऐसे अनेकों शिक्षक होंगे, जिनके पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भले ही साधनों-संसाधनों का अभाव हो मगर वे अपने कर्तव्यों के निर्वहन में कोई कमी नहीं रखते होंगे। वे अपने विद्यार्थियों की सेवा में अहर्निश जुटे रहते हैं।
मेरो मन अनत कहां सुख पावै, जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिर जहाज पर आवै।
जो एक बार अध्ययन-अध्यापन से जुड़ गया, वह आजीवन इससे जुड़ा रहता है। अध्यापन एक व्यवसाय (प्रोफेशन) नहीं बल्कि प्रकृति और प्रवृत्ति है। जिनकी प्रकृति और प्रवृत्ति अध्यापन के अनुकूल नहीं वे इस क्षेत्र में टिक नहीं सकते और अगर टिक भी गए तो स्वीकार्य एवं सफल नहीं हो सकते।जिनकी प्रवृत्ति और प्रकृति अध्यापन की है, वे राष्ट्रपति-भवन से निकलने के बाद भी अध्यापक बने रहते हैं। चाहे वे डॉ राधाकृष्णन हों या ए.पी.जे.अब्दुल कलाम या कोई अन्य महानतम व्यक्तित्व। वे अंतिम पल तक सीखने-सिखाने, पढ़ने-पढ़ाने से जुड़े रहे। यह अकारण नहीं है बल्कि इसके पीछे उनकी अध्यापकीय दृष्टि है।
ज्ञानप्रदाता के रूप में शिक्षक की जटिल भूमिका
आधुनिक युग में शिक्षकों की भूमिका अधिक जटिल हो गई है लेकिन यह भी सच है कि शिक्षकों की भूमिका न केवल शिक्षा के क्षेत्र में है बल्कि वे समाज के भी एक महत्वपूर्ण अंग हैं। शिक्षकों की भूमिका उन्हें जीवन के साथ-साथ अच्छे नागरिकों के रूप में बनाने के लिए भी होती है। वे छात्रों के साथ उचित तरीके से संवाद करते हैं ताकि वे उन्हें बेहतर समझ सकें और छात्रों के लिए संबंधित विषयों के रूप में विवेचना कर सकें। शिक्षकों की भूमिका न केवल छात्रों को शिक्षित करने में होती है बल्कि वे छात्रों को सही और गलत के बीच अंतर को समझाने और संवेदनशील नागरिकों के रूप में उन्हें तैयार करने के लिए भी जिम्मेदार होते हैं।
शिक्षकों की भूमिका आधुनिक युग में शिक्षा के लिए अधिक से अधिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करने में भी है। शिक्षकों को अपने छात्रों को नवीनतम तकनीक का उपयोग करने में मदद करनी चाहिए ताकि वे उन्हें वास्तविक दुनिया में सफलता हासिल करने में मदद कर सकें। समस्याओं का सामना करने वाले आधुनिक युग में शिक्षकों की भूमिका इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि वे छात्रों को समस्याओं के समाधान के लिए तैयार करते हैं। शिक्षक छात्रों को समस्याओं को समझने और उन्हें समाधान करने के लिए तकनीकी और व्यक्तिगत कौशल सिखाते हैं। वे छात्रों को नए समाधानों को खोजने और उन्हें विश्व के समस्याओं के साथ जोड़ने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। शिक्षक विभिन्न विषयों के साथ छात्रों को प्रेरित कर उनकी सोच व सर्जनात्मकता को विकसित करता है।