टिकट न मिलने से नाराज कई नेता लड़ाते रहे विपक्ष को चुनाव, जिन्हें मिली जिम्मेदारी वह वैश्य लीडरशिप को लेकर रहे चिंतित, कोई अध्यक्ष की कुर्सी को पाने की मुहिम में लगा तो कोई नाला और लाला की खैर में जुटा |
फर्रुखाबाद। भाजपा के वरिष्ठ नेता सुनील बंशल ने नजदीकियां भले ही भाजपा जिलाध्यक्ष रूपेश गुप्ता की माँ सुषमा गुप्ता को टिकट दिला गईं। लेकिन जिम्मेदारों को यह बिलकुल भी रास नही आया। नतीजा फिर हार और नगर के विकास का अधूरा सपना सामने रहा। किसी ने नाला की खैर की तो कोई लाला के साथ दिखा सदर विधानसभा का एक बड़े भाग वाली सदर नगर पालिका जहां बीते उच्च सदन में एक लाख मतदाता पार्टी के साथ था। वहीं इस चुनाव में सिमट कर 30 हजार रह गया। आंकडे देख हर कोई हतप्रत है।
भारतीय जनता पार्टी में वैश्य लीडरशिप जिले में न पनपे इसके प्रयास तो कई बरस से चले आ रहे है। भाजपा के कद्दावर नेता रहे स्व0 ब्रम्हदत्त द्विवेदी के प्रयासों के बाबजूद भी उस दौर में डा० अर्चना गुप्ता चुनाव हारीं। इसके बाद पार्टी ने लोक प्रिय नेता रहे बागीश अग्निहोत्री पर दांव लगाया। लेकिन वह चेहरा भी उस दौर की भाजपा को समझ नही आया और उनकी राजनैतिक बली दे दी गई। कम उम्र में अपनी साफ सुथरी छवि और ईमानदार शख्शियत के बलबूते अध्यक्षी की कुर्सी संभाले रूपेश गुप्ता वैश्यों में जब उभरे तो यह बात अच्छे अच्छे धुरंधरों को इस कारण नागवार गुजरी कि उन्हें एक नये युवा के सामने अब हिसाब देना होगा।
पार्टी को रूपेश ने बखूबी मजबूती दी। युवा वर्ग को बढावा दिया। बस गलती हुई तो इतनी कि उन्होंने इसी के साथ अपनी राजनैतिक महत्वांकाक्षा को आगे रख बुजुर्ग मां के लिए अपनी सालों साल पुरानी मेहनत और पार्टी की प्रतिनिष्ठा के बदले टिकट पा ली। रूपेश गुप्ता एक ऐसा नाम पार्टी में उभरकर सामने आया जिसके ऊपर कभी उंगली नही उठाई जा सकी। चर्चाओं के दौर तो काफी रहे। लेकिन वह सिर्फ रूपेश की लोकप्रियता के उलट थे। रूपेश गुप्ता अधिकारियों को भी भाये क्योकि कभी कोई दवाव नही बनाया गया। सरकार की मंशा के अनुरूप योजनाओं को मूर्तरूप दिलाया गया। थाने और चौकियों में पोस्टिंग व ट्रांसफर की बात नहीं की गई।
नगर पालिका का चुनाव जब आया तो भाजपा के पास कोई ऐसा चेहरा नही सामने रहा जिस पर दांव लगाया जा सके। मोहन अग्रवाल को टिकट मनोज अग्रवाल के चुनाव मैदान में होने से नही मिली। सुधांशु दत्त द्विवेदी को पार्टी ने परिवारवाद की बात कह ना कह दिया। सदर विधायक ने अपनी पत्नी अनीता द्विवेदी का आवेदन नही कराया। पार्टी का नियम था कि आरक्षित सीट पर उस वर्ग का ही प्रत्याशी हो ऐसे में सुषमा गुप्ता का नाम उनके बेटे की सेवाओं को देख पार्टी को दिखाई पड़ा और वह प्रत्याशी घोषित हुई।
बीते निकाय चुनाव पर नगर डालें तो उस दौर में प्रत्याशी रही भाजपा की लोकप्रिय नेता मिथलेश अग्रवाल भी पार्टी की अन्दरूनी गुटवाजी की शिकार होकर हारीं और उससे पीछे की बात कहें तो डा० रजनी सरीन भी इसी कलेश से निपटाई गई। निकाय चुनाव में रूपेश गुप्ता अपनी मां को इतना बडा वोट दिला लेंगे यह किसी ने सोंचा नही था । नाम न छापने की शर्त पर कई नेताओं ने इस बात पर आश्चर्य और अफसोस जताया कि वह नही जानते थे कि यह लड़का इतनी शिद्दत से चुनाव लडकर इतना बोट अपनी मां को दिला लेगा। भारतीय जनता पार्टी के वह चेहरे जिनके संग बड़े वर्ग चलते है पूरे चुनाव कहीं दिखाई नही पडे। उप मुख्यमंत्रियों की सभा में तो वह चमके लेकिन इसके बाद घर बैठ गये।
मतगणना के दौरान सोंची समझी साजिश भी सामने आई। शैलेन्द्र सिंह राठौर जैसे नेता कार्यकर्ताओं को भडकाकर उनकी पिटाई कराने में तो आगे दिखे। लेकिन खुद पर्दे के पीछे तमाशबीन बने रहे। इसके अलावा कई जिम्मेदार तो मौके पर भी नहीं पहुंचे और न ही बुलंदी से प्रशासन से अपनी और पार्टी की बात रखी। अपनी ही सरकार में अपनी ही पार्टी की न केवल छवि में कालिख पुतवाई बल्कि जिलाध्यक्ष की भी पिटाई की तोहमत लगवाने में कोई कमी छोडी। इतनी बड़ी घटना और जिम्मेदारों की चुप्पी आम कार्यकर्ता के हौसले पस्त करने के लिए काफी है। जो चुनावों में अपनी जान की बाजी लगाते है, जिनके सख्त कदमों से नेता सदनों में पहुंचते है, वह घरों में बैठ यह इंतजार कर रहे कि कब जिलाध्यक्ष नैतिकता के आधार पर इस्तीफा सौंपे।